आमतौर पर सभी
व्यक्तियों के स्वभाव में भिन्नता पाई जाती है. प्राय: देखा जाता है जहां कुछ लोग
हंसमुख और मिलनसार होते हैं वहीं कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बात-बात पर चिड़चिड़ा
बर्ताव करते हैं, उन्हें अन्य लोगों से मिलना-जुलना पसंद नहीं होता. स्वभाव ही नहीं
लोगों का दूसरों के प्रति अपनी भावनाएं जाहिर करने का तरीका भी पूरी तरह भिन्न होता
है. आपने देखा होगा कि जहां कुछ लोग उपलब्ध अवसर का पूरा फायदा उठाकर पूरे दिल से
अपनी भावनाओं का प्रदर्शन करते हैं. वह अपने प्रेमी से बड़े फिल्मी और रोमांटिक
अंदाज में सब कुछ बयां कर देते हैं.
वहीं दूसरी ओर वे लोग जिन्हें आप
अनरोमांटिक या इमोशनलेस कहते
हैं वह कभी भी अपनी भावनाएं अपने प्रेमी को नहीं कह पाते. पहले तो वे रोमांटिक होने
की बात सोचते ही नहीं हैं और अगर सोच भी लें तो वह ऐसा कुछ कर ही नहीं पाते जिससे
उनका प्रेमी उनकी प्रेम भावनाओं को समझ सके.
अगर आप व्यक्तियों
के ऐसे भिन्न-भिन्न व्यवहारों को उसकी व्यक्तिगत परिस्थितियों या प्राकृतिक स्वभाव
के साथ जोड़कर देखते हैं तो एक नया शोध आपको थोड़ा आश्चर्यचकित कर सकता है. क्योंकि
इस शोध के माध्यम से यह प्रमाणित किया गया है कि व्यक्ति का बचपन ही उसे रोमांटिक
या गंभीर बनाता है.
अध्ययन में आए
नतीजों पर गौर करें तो यह प्रमाणित हो जाता है कि जन्म के 12 से लेकर 18 महीने तक
बच्चा जो भी अनुभव ग्रहण करता है वही उसे आगे चलकर गंभीर या रोमांटिक बनाता
है.
बचपन में मां के
साथ बच्चे का संबंध कितना गहरा और भावनात्मक है यही आगे चलकर उस बच्चे के रूमानी
भावनाओं को विकसित करता है. इस अध्ययन के अनुसार बच्चे की भाषा और उसकी समझ विकसित
होने से पहले ही बच्चा रोमांटिक भावनाओं को ग्रहण कर लेता है. अगर उसकी मां बचपन
में उसे बहुत लाड़-प्यार करती है तो आगे चलकर वह भी अपने प्रेमी के साथ अत्याधिक
जुड़ाव और संवेदनशील व्यवहार रखता है.
उल्लेखनीय है कि
माता का स्वभाव ना सिर्फ बच्चे की रोमांटिक भावनाओं के विकास का कारण बनता है बल्कि
अभिभावकों का व्यक्तित्व और उनका चरित्र बच्चे के मौलिक विशेषताओं की पहचान भी
स्थापित करता है. अगर माता या पिता में से कोई एक अपने साथी के साथ ईमानदार नहीं है
या हर बात पर चिल्लाता है तो उनका ऐसा व्यवहार बच्चे के मस्तिष्क को भी प्रभावित
करता है और आगे चलकर वह भी अपने साथी के साथ ऐसा ही संबंध रखता है.
भले ही यह अध्ययन
एक विदेशी संस्थान द्वारा करवाया गया है लेकिन बच्चों का स्वभाव और अभिभावकों के
चरित्र का उन पर प्रभाव लगभग समान ही होता है. इसीलिए सिर्फ इस आधार पर इस शोध के
नतीजों को नकार देना कि यह सिर्फ विदेशी मानसिकता और जीवनशैली का ही प्रमाण है तो
यह न्यायसंगत नहीं होगा. इसके विपरीत इस अध्ययन को एक संकेत मानकर अभिभावकों को
अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को समझना चाहिए ताकि बच्चे का भविष्य और उसके भावी
जीवनसाथी का जीवन सुखमय और चिंतामुक्त रह सके.
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